मैं हूँ एक नगण्य वस्तु, सभ्यता के विकास का एक बड़े यत्न से छिपाया हुआ उच्छिष्ट अंश, जो उसी सभ्यता में अपनी कुढ़न के अत्यन्त अकिंचन कीटाणु फैलाता जाता है-बिना जाने ही नहीं बल्कि जान-बूझकर अपने से छिपाये गये साधनों द्वारा, चुपचाप, चोरी-चोरी किसी भावी, व्यापक, चिरन्तन, घोर आतंकमय जीवन-विस्फोट के लि ए...
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अगर नगण्य वस्तु में भी तुम विश्वास करते हो तो तुम्हारा चैतन्य वहाँ से भी तुम्हें सहाय करता है तो सचमुच में विधिवत् प्राणप्रतिष्ठा हुई हो ऐसी मूर्ति की आराधना उपासना से अथवा सच्चे कोई आत्मवेत्ता संत, जो अमूर्त आत्मा में टिके हो, रमण महर्षि जैसे, रामकृष्ण जैसे, लीलाशाह बापू जैसे ब्रह्मवेत्ता आत्म-साक्षात्कारी पुरुषों के प्रति श्रद्धा-भक्ति से इस लोक और परलोक में लाभ सहज में होने लगे इसमें क्या आश्चर्य है?